अक्षरा सिंह भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री की चर्चित नायिका हैं। वे अब तक 35 फिल्मों में अभिनय कर चुकी हैं। वे जल्द ही पटना समेत बिहार के कुछ शहरों में अभिनय और नृत्य इंस्टीट्यूट शुरू करने वाली हैं।
अक्षरा सिंह के सौंदर्य और अभिनय प्रतिभा का लोहा भोजपुरी सिनेमा जगत मानता है। साल 2011 में, 15 साल की अक्षरा ने रवि किशन स्टारर "सत्यमेव जयते' से अभिनय के क्षेत्र में क़दम रखा, लेकिन इससे बहुत पहले-पटना निवासी एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्म के साथ ही उनका नाता रंगकर्म और साहित्य से जुड़ गया था। दरअसल, उनके पिता विपिन सिंह और मां नीलिमा सिंह एनएसडी रंगमंडल में सक्रिय रहे हैं। जाहिर है, घर में कला-मंच-सिनेमा-संगीत-सबके प्रति सम्मान का भाव था। अक्षरा ने नियमित तौर पर 10वीं तक स्कूली पढ़ाई की। बाद में पत्राचार से बीकॉम की पहली पायदान तक पहुंचीं। औपचारिक पढ़ाई में उनकी रफ्तार ज्यादा नहीं रही, लेकिन अक्षरा मानती हैं कि जीवन के स्कूल में उन्होंने मन लगाकर अध्ययन किया है और अनुभवों के कई अनूठे पाठ पढ़े हैं।
अक्षरा का कहना है
अभिनय में तो कम, लेकिन संगीत और नृत्य में मेरा काफी रुझान था। पिता जी चाहते थे कि मैं अभिनय की फील्ड में जाऊं। कला के परिवेश में पली-बढ़ी थी, इसलिए सोचा - एकबारगी फिल्मों में भाग्य आजमाकर देखूं। रवि किशन जी के साथ प्रवेश करना सही कदम साबित हुआ। मेरी सोच-व्यवहार सब सिनेमा की दुनिया से काफी अलग है, लेकिन खुद पर विश्वास और शुरुआती दिनों में रवि किशन जी के समर्थन से राह आसान हुई। सच तो ये है कि मुझे और मेरे छोटे भाई को आगे बढ़ाने के लिए मां-बाप ने हर किस्म का संघर्ष किया है। उन्होंने हर कदम पर बताया कि मेहनत और सच्चाई से बड़ी कोई और ताकत नहीं होती।
बिहारी होने पर गर्व
बिहार ने हर क्षेत्र को अपनी प्रतिभाओं से समृद्ध किया है। मुझे बिहारी होने पर गर्व है। जान-बूझकर अपना लहज़ा बदलने या जिसे सुधरा हुआ तरीका माना जाता है, उस हिसाब से अपनी भाषा बिगाड़ने या अंग्रेज़ियत ओढ़ने की कोशिश नहीं करती। हम अपने घर में, मित्रों-रिश्तेदारों के साथ हिंदी में बात करते हैं। अपनी मिट्टी और जुबान से अलग पहचान तलाशने की कोशिश भी क्यों करनी? झूठी पहचान हमें गर्त में ले जाती है। मुझे ऐसा लगता है कि बिहार के बहुत सारे लोग अपने-अपने तरीके से प्रदेश का नाम रोशन कर रहे हैं।
नायिकाओं का बढ़े सम्मान
हीरो की तुलना में अभिनेत्रियों को बेहद कम पारिश्रमिक दिया जाता है। उन्हें सिर्फ ख़ूबसूरत दिखने के लिए फिल्मों का हिस्सा बनाया जाता है। जब तक इस सोच में बदलाव नहीं आएगा, चाहे सिनेमा का परदा हो या फिर निजी जीवन- स्त्री का चित्रण नहीं बदलेगा। स्वाभाविक सी बात है- फूहड़ता बनी रहेगी। स्त्री को हर रूप में सम्मान, स्वीकार्यता और समानता का अधिकार मिले। मैंने महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव का हमेशा विरोध किया है और आगे भी करती रहूंगी।
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